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Thursday, December 1, 2011

यूँ हो भी सकता है

यक़ीन आता नहीं दिल को कि ऐसा हो भी सकता है,

हमारा हाल-ए-ग़म सुनकर वो ज़ालिम रो भी सकता है,

कभी इन्सान अकेला हो के भी तन्हा नहीं होता,

सर-ए-महफ़िल कभी बैठे बिठाये खो भी सकता है,

ताज़ुब क्यों है तुमको हमारी बे-गुनाही पर,

कर्म का एक क़तर दाग़े-ए-दामन धो भी सकता है,

कभी इन्सान को नींद आती नहीं फूलों के बिस्तर पर,

कभी पत्थर पे सर रख कर मज़े से सो भी सकता है,

वो कहते हैं तेरी ख़ातिर सितारे तोड़ लायेंगे,

बा-ज़ाहिर यूँ नहीं होता मग़र यूँ हो भी सकता है !!



~♥ kalp ♥~

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